अनकहे ज़ज्बात
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कस्बों में दिये जले हैं, गाँव में ये अंधकार क्यु है
वहां रोशन हैं मकान, तो घर यहां सूना क्यु है
बाजार में रोनक लगी हैं, मेरी दहलीज पर ठोकर लगी हैं
सब कुछ बिक रहा है, मेरी चौखट खाली पड़ी हैं
बाघों में फूल खिले हैं, बंजर मेरी ज़मीन पड़ी हैं
सड़कों पर कतार लगीं हैं, गलियाँ क्यु सूनी पड़ी हैं
दौलत की चाह में, क्यु हाथ वो छोड़ गये हैं
मिट्टी के बर्तन को क्यु वो तोड़ गये हैं
चेहरे पर झुर्रियां, आखों मे इंतजार क्यु हैं
मिलने की तड़प में जलते क्यु इंसान दो हैं
कमजोर आखों मे अब डूबता सूरज क्यु है
खिलखिलाता घर अब ये खण्डहर क्यु है
भूल गए उन हाथों को, क्यु भार ढोते उन कंधों को
नाम से तेरा नाम था, क्यु याद नहीं ये बातों में
जलता तेरा मकान है, घर क्यु वो राख पड़ा है
अंजान वो इंसान बना है, क्यु कांपते हाथो में भार पड़ा है
आखों में उम्मीद जगी हैं, अब मौत सामने खड़ी हैं
हों सके तो लौट आना, अकेली दो लाश पड़ी हैं
ना आंसू तुम बहाना, रूह हमारी साथ खड़ी हैं
लौट जाना तुम, एक उम्र तुम्हारे सामने पड़ी है!!
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