अभिमन्यु
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हे मृत्यु है आने को तैयार तू ,
प्रसन्न मुख आ ।
मैं खड़ा तेरे स्वागत में ,लिए अपनी शीष लिए हाथ में
तू भी वीर कहलाएगी मुझे लेकर अपने साथ में,
ये रक्त मेरा शौर्य से लाल है
भयभीत स्वयं आज खड़ा काल है
तू भी आकर मेरा प्रणाम ले जा
हे मृत्यु है आने को तैयार तू,
प्रसन्न मुख आ ।
भय की किरण इस सूर्यमुख पे न टिक सकेगी
मृत्यु भी समक्ष मेरे ज़्यादा देर न रुक सकेगी
आज प्रलय की भांति मैं युद्ध करूँगा
काल भी स्वयं उतर आये तो भी लड़ूँगा
पिताश्री की कीर्ति को मैं मस्तक से लगाऊंगा
बिना विजय के वापस न लौट पाऊंगा
पवन के वेग से वह चक्रव्यूह की ओर बढ़ चला
मानो कौरवों की सेना पे आ गया हो कोई ज़लज़ला
कौंधती बिजली की भांति उसने चक्रव्यूह का द्वार तोड़ दिया
हर योद्धा का वीरता का घमंड एक तीर से फोड़ दिया
सात महावीर आ खड़े हो गए उसके सामने
वो नन्हा वीर लगा तीरों का राग अलापने
सात-सात से एक लड़ा था वो बहुत वीर
अधर्म के बाण को काटते गए उसके धर्म साधक तीर
हए शास्त्र निष्फल जब तो रथ-चक्र उसकी ढाल बना
था साहस अत्यंत उसमे वो कौरवों का काल बना
अंत में अधर्म से वो पराजित हुआ
श्रेष्ठ योद्धा की उपाधि से वो नवाज़ित हुआ
मुस्कुरा कर उसने परम धाम की ओर प्रस्थान किया
उसके वीर रक्त से कुरुक्षेत्र की भूमि ने स्नान किया
उसके जैसा योद्धा ना कोई दूसरा आया युगों का समय बीत गया
जो हार कर भी जीत गया
ऐसा था वो योद्धा ……अभिमन्यु ।।
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